Sunday 19 September 2021

Be Positive: Why and How

#Be_Positive: #But_why_and_How ?

वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं।
- महर्षि पतंजलि 
वितर्क अर्थात मन में जो भी चलता रहता है-गड्डम गड्ड। जो भी विचार आपके मन को व्यथित करते रहते हैं वह वितर्क की श्रेणी में आते हैं। 

तर्क का अर्थ है- लॉजिकल थिंकिंग। चैतन्य चिंतन है तर्क। आपको पता है कि आप क्या सोच रहे हैं। You know what's going in your mind. वितर्क का अर्थ है कि You are not aware of your mind, but its full of bullshit thoughts which are tremendously bothering you. 

मन में चलता ही रहता है कुछ न कुछ ऐसा। मन में गीत फूट रहा है, संगीत फूट रहा है, नृत्य फुट रहा है, तो वह सुखद होता है। मन में क्रोध पनप रहा है,  हिंसा, घृणा, ईर्ष्या द्वेष अवसाद पनप रहा है, तो वह दुखद होता है। 

लेकिन सुख के क्षण सीमित होते हैं। दुख के क्षण असीमित। दुख के क्षण नहीं होते - घण्टे महीने और साल होते हैं। अधिकतर दुख भूतकाल की पीड़ाओं से या भविष्य के भय से उपजते हैं। दोनों का अस्तित्व नहीं है लेकिन मन में यही सब कुछ गड्डमड्ड चलता रहता है। जो व्यथित करता है, चिंतित करता है, उदास करता है, भयभीत करता है। 

आजकल कुछ नहीं तो कोरोना ने सबको भयभीत कर रखा है। भय मनुष्य के मन का स्वाभाविक अंग है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार मन के दस प्रकोष्ठ हैं: काम (कामना वासना चाहत डिजायर) संकल्प, विचिकित्सा ( संशय) धैर्य, अधैर्य, श्रद्धा, अश्रद्धा, हिं ( लज्जा) भीं ( भय ) धी ( बुद्द्धि विवेक)। 
यह मन या माइंड के अंग हैं। यह सभी मनुष्यों के अंदर होता है। भय बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है मानव मन का। निर्भयता ट्रैनिंग से आती है मन के। 

एक मित्र भयभीत है कोरोना से। यह बात Niraj Agrawal ने मुझे बताया। उसने बताया कि उस मित्र को भय के कारण नींद ही नहीं आ रही है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो भयभीत होंगे। भयभीत तो सभी हैं, परंतु कौन कितना है यह बताना संभव नहीं है। यह तो वह व्यक्ति स्वयं  जानता है। लेकिन मनुष्य का अहंकारी इतना प्रबल होता है कि उसके लिए यह स्वीकार करना कठिन होता है कि वह भयभीत है।

 मेडिकल साइंस इमोशन्स को कोई महत्व नहीं देता। क्योंकि इमोशन्स को शरीर में खोजा नहीं जा सकता। मेडिकल साइंस आजकल एविडेंस बेस्ड मेडिसिन की बात करता है। तो शरीर में इमोशन्स कहाँ खोंजे वह? लेकिन इससे सहमत होता है कि भय से शरीर का एक तंत्र सक्रिय होता है, जिससे निकले केमिकल शरीर की इम्युनिटी कम करते हैं। ( पढिये #फ्लाइट_ओर_फाइट : #HPA_Axis)। 

मन को इन व्यथाओं से मुक्त कराने की विधियों का ही योग विज्ञान में वर्णन है। हर मनुष्य के मन की व्यथा अलग अलग होती है। परंतु महर्षि पतंजलि ने उन्हें पांच श्रेणियों में बांटा है - अविद्या अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेषा: पंच कलेशा:।।
 यद्यपि हर मनुष्य अलग है अनोखा है। इसलिए सबके माइंड का फॉरमेट एक जैसा ही होता है। 

महर्षि पतंजलि ने मन को व्यथा से मुक्त करने की अनेकों विधियों का वर्णन किया है योगसूत्र में। उनमे से एक विधि है - वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं। 

जब मन विचारों के जंजाल में उलझ जाए और ऊल जलूल विचार मन को व्यथित करने लगें, आतंकित करने लगें, तो प्रतिपक्ष की भावना मन में लाना चाहिए। जिसको आजकल कहा जाता है - Be Positive. Don't think Negative, Be positive.

 महर्षि कह रहे हैं कि ऐसी स्थिति में उल्टी भावना अपने मन के अंदर ले आनी चाहिए। अर्थात यदि मन में हिंसा और क्रोध उतपन्न हो, भय का संचार हो, व्यथा उत्पन्न हो तो करुणा और प्रेम, निर्भयता, हर्ष का भाव मन में लाना चाहिए। 

लेकिन क्या यह इतना आसान है?
नहीं आसान नहीं है। आसान होता तो महर्षि इसे सूत्र बद्व न करते। महर्षि पतंजलि वैज्ञानिक हैं और शब्दों में कंजूस। पूरे योग को तीन शब्दों में व्याख्यायित करने वाले : योगः चित्तवृत्ति निरोध:।

 चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त अर्थात मन या माइंड। उसकी वृत्ति क्या है? चंचल होना। बार बार वहीं घूमफिर कर आ जाना जो बात मन मे अंटक गयी है, जिस बात पर मन विदक गया है, जो बात मन में चुभ गयी है, जो मन में खटक रही है। यह तो मन का सहज स्वभाव है।
तो फिर ? कैसे होगा वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं?

तो पहली बात तो यह है कि हमें यह समझना होगा कि जिस तरह हम जीवन जीते हैं, उसमें हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे मन में चल क्या रहा है? हम अपने मन के प्रति बेहोश रहते हैं। हम घर से निकले आफिस के लिए। और आधे घण्टे में आफिस पहुँचे। उन आधे घण्टे में हमारे मन में क्या क्या चला, क्या क्या योजनाएं बनी, कौन कौन सी व्यथाएँ उत्पन्न हुयी, इस सबका हमें कोई ख्याल ही नहीं रहता। सब कुछ यंत्रवत हो रहा है। हम एक यंत्र की भांति जीवन गुजार रहे हैं। सर्वप्रथम इस बात को स्वीकार किया जाय कि हम यंत्रवत जीवन जी रहे हैं, बेहोशी में जी रहे हैं। स्वीकार करते ही आधा काम खत्म हो जाता है। लेकिन स्वीकार गहन होना चाहिए।निरंतर होना चाहिए। 

दूसरी बात यह है कि हमें होश में, बोध में जीने की कला सीखनी होगी। हमें अपने मन का चुपके से पीछा करना होगा। हमारे मन में क्या चल रहा है चुपचाप उस पर दृष्टि रखनी होगी। तभी यह समझ मे आएगा कि हमारे मन में क्या चल रहा है।

 इसी को महर्षि पतंजलि स्वाध्यायः कहते हैं। अपना अध्ययन। अपने मन मे जो भाव या विचार आ रहे हैं उनका अध्ययन। तभी यह संभव होगा कि मन में जो विचार उत्पन्न हो रहे हैं, व्यथित कर रहे हैं, उनसे अपने चित्त को सकारात्मक विचारों और भावों की तरफ मोड़ा जा सकेगा। 

©त्रिभुवन सिंह

एक वर्ष पुरानी पोस्ट।

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