Sunday 20 September 2020

उत्तिष्ठत जाग्रत :

#उत्तिष्ठत_जाग्रत:

उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरानिबोधत्। 
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति।।
-कठोपनिषद 

यह स्वामी विवेकानंद का अत्यंत प्रिय मंत्र था। बहुत से लोग समझते हैं कि उनके द्वारा रचित मंत्र है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह कठोपनिषद से उद्धरित है। 

उत्तिष्ठत जाग्रत : उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य क्या सोया हुवा है? जो उसे कह रहे हैं कि उठ जाओ जाग जाओ। मनुष्य तो प्रतिदिन 6 से 8 घण्टे सोता है। उसके अतिरिक्त समय में जगा हुवा है। उठा हुवा है। कुछ न कुछ कर रहा है। तो फिर ऐसा क्यों कहा ? 

वस्तुतः जैसा हमारा जीवन है, उसमें हम सोए सोये ही जीते हैं। रात में भी सोते सोते सपने देखते हैं। दिन में भी सपने देखते हैं - दिवास्वप्न। मुंगेरीलाल के हसीन सपने। हसीन सपने सिर्फ मुंगेरीलाल ही नहीं देखता। हम समस्त लोग मुंगेरीलाल की तरह ही सपने देखते हैं। लेकिन इसका हमें बोध ही नहीं है कि हम सदैव सपने देखते रहते हैं। सोते सोते और जागते। इसका बोध तब होगा यदि अपने मन को देख सकोगे तब। एक इच्छा मन में उभरी। उसके उपरांत उसको पूरा करने की योजनाएं मन में चलने लगीं। सब हवा में है। इच्छा भी और उसको पूर्ण करने की योजना भी। आप घर से आफिस जाने के लिए निकले अपनी गाड़ी में। और आफिस पहुंचते पहुंचते आपने अपने मन मे सैकड़ो योजनाएं बनाये और रद्द किया। कब आफिस पहुंच गए। पता भी न चला। कितनी योजनाएं मन मे बनी यह भी याद नहीं रहा। आपने गाड़ी भी ड्राइव किया और सपने भी बुनते रहे। ऐसा ही न हो रहा है। 

तुलसीदास ने कहा-
"मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपना विविध प्रकारा।।
कृष्ण ने कहा -" या निशा सर्वभूतेषु जागर्ति तस्य संयमी"। 

इसी को कहा जा रहा है। उत्तिष्ठत जाग्रत। उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। बेहोशी का जीवन मत जियो। अब भी समय है। कबीर कहते हैं :
कहैं कबीरदास कब से बही।
जब से चेता तब से सही। 

जन्म के समय भी तुम्हे होश नहीं था। मृत्यु के समय भी बेहोश रहोगे। बीच में बचा जीवन। वह भी बेहोशी में बिता दोगे क्या। इसलिए उठ जाओ। जाग जाओ। चेत जाओ। 

प्राप्य - जो प्राप्त करने योग्य है। क्या प्राप्त करने योग्य है इस जीवन में? बचपन से ही हम बच्चों को सपने में जीने का, सपने देखने का शिक्षण और प्रशिक्षण देना शुरू कर देते हैं। #Dream_Big। बड़े सपने देखो। महत्वाकांक्षा पालो। आकांक्षा भी नहीं। महत्वाकांक्षा। 
बच्चा अभी विद्यालय की देहरी भी नहीं डांक भी नहीं पाया था कि माता पिता अडोसी पड़ोसी पूंछने लगते हैं कि क्या बनोगे? महत्वाकांक्षा का बीज बो दिया बच्चे के अंदर। सपने बो दिए गए उसके मन में। असंतुष्टि के बीज रोप दिया गया। तृष्णा के बीज उसके मन मे बो दिया गया। 

अब बच्चा लग गया जीवन के अंधी दौड़ में। गला काट प्रतियोगिता। अब बनेगा कुछ। जो है वह नहीं रह जायेगा। आवरण चढ़ने लगेगा उस पर। मुखौटा धारण करेगा। बनने की दौड़ में लगा तो बन गया डॉक्टर इंजीनियर आईएएस पी सी एस, थानेदार, ठीकेदार। अब उसे चाहिए धन मान सम्मान। डॉक्टर बना था सेवा करने के लिए। आईएएस बना था देश सेवा करने लिये। लेकिन बनते ही, सेवा पीछे रह गयी। धन कमाने की दौड़ में सम्मिलित हो गया। शादी व्याह प्रेम मोहब्बत बाल बच्चे की दौड़ में सम्मिलित हो गया। धन भी अब संतुष्ट नही कर सका उसको। अब उसे चाहिए राजनीति में जाने के लिए पार्टी का टिकट। लोक प्रतिष्ठा चाहिए उसे। लोग पहचाने सम्मान दें। प्रयागराज जैसे छोटे शहर में चुनाव का मौसम आते ही आठ दस डॉक्टर कुर्ता पजामा गांठकर टिकटार्थियों की लाइन में लग जाते हैं। 

धन और पद कमाते ही उसका मद सर पर चढ़कर बोलने लगता है।
शराब तो उतर जाती है कुछ घण्टे बाद। धन और पद का मद 24 ×7× 375 चढ़ा रहता है। मद बना है मद्य से। मद्य अर्थात शराब। पद का मद देखिये किसे तरह चढ़ता है।
प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं।
को नर अस जन्मा जग माहीं।
- रामचरित मानस। 

 एक डीएम,  जो बचपन मे फैजाबाद पैसेंजर से आता था इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने, अब उन्ही लोगों को घास पात समझने लगता है, जिनके बीच से आया था। इसी को कहा जा रहा है बेहोशी में जीना, सपने में जीना। मद्य उतरती ही नहीं उसके मस्तिष्क से। 
ला पिला दे साकिया पैमाना पैमाने के बाद।
होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद। 
पैमाने पर पैमाना पिये चला जा रहा है मनुष्य। धन का पैमाना, पद का पैमाना। होश है ही नहीं। बेहोश है व्यक्ति। 
पूरा जीवन बनने में, मुखौटा पहने हुए, असंतुष्टि में व्यतीत हो गया। तुष्टि क्या है इसका स्वाद भी न चखा। 

और इसी तरह एक समय आता है कि जिंदगी की शाम आ जाती है। बेहोशी में जन्मे, बेहोशी में जिये, बेहोशी में मर गए। होश क्या है इसका स्वाद ही न चखा जीवन में। 

क्या यही प्राप्य था जीवन का? क्या यही अभीष्ट था जीवन का। बच्चे को सिखाते गए कि होश से काम करो। ध्यान से काम करो। लेकिन ध्यान क्या है, होश क्या है इसको न सिखाया। सिखाते कैसे? स्वयं भी तो बेहोश ही जीवन जी रहे थे। 

तो मंत्र कह रहा है : प्राप्य वरानिबोधत। 
प्राप्य क्या है? प्राप्त करने योग्य क्या है? वह सद्गुरु जिसने बोध को प्राप्त किया हो। जिसने बोध को जाना हो ऐसा पुरूष। जिसने जागरण की कला जाना हो ऐसा सद्गुरु। वही प्राप्य है। वही बता सकेगा कि जागरण क्या है, होश क्या है, बोध क्या है। जिसने जाना है वही सिखा सकेगा यह कला। 

कबीर कहते हैं : कर्म करे निष्काम रहे जो ऐसी जुगति बतावे सो सद्गुरु कहावे। हर व्यक्ति सद्गुरु नहीं हो सकता। जो प्रवचन दे निष्काम कर्म का वह लेकिन युक्ति नहीं जानता है उसकी। वह है पंडित। वह सद्गुरु नहीं है। सद्गुरु तो वही है जो उसकी युक्ति सिखाता हो।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथः तत् कवयो वदन्ति। 
कवयो अर्थात सद्गुरु ऋषि - जिसने उस बोध को प्राप्त किया है। जो जाग्रत है। वह बताता है कि उस बोध को प्राप्त करने का पथ बड़ा दुर्गं है। कठिन है। असम्भव नहीं। कठिन - तीक्ष्ण क्षुरे के धार पर चलने जैसा कठिन। क्षुरे की धार पर चलना हो तो बेहोशी में नही चल सकते। पैर कट जाएगा। अत्यंत होश में ही , अत्यंत बोध के साथ ही क्षुरे की धार पर चलना संभव हो सकता है। 

©त्रिभुवन सिंह

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