#सरकारी_Vs_प्राइवेट :
आज जब सरकारी बनाम प्राइवेट की बहस शुरू की गयी है, तो मुझे लगता है कि इतिहास की दृष्टिकोण से भी इसको देखा जाय।
सरकारी नौकरी का सबसे बड़ा आकर्षण है #प्राइवेट_बिज़नेस और स्वरोजगार को हतोत्साहित करने वाले कानून, जो आज भी ब्रिटिश दस्युओं द्वारा निर्मित ढांचों पर बनाये जा रहे हैं।
ब्रिटिश ने कानून बनाया था - प्रोटेक्टिव मॉडल कानून का। किसका प्रोटेक्शन? ब्रिटिश वाणिज्य और मैन्यूफैक्चरिंग का। उसकी नींव निर्मित होती थी - भारत में स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने वाले कानून बनाकर। लेकिन स्वतंत्र भारत मे आज भी जारी है उनका बने रहना?
क्यों?
#प्राइवेट_बिज़नेस पर टैप कीजिये तो आपको कई लेख मिलेंगे मेरे।
फिलहाल एक प्रस्तुत है। किसी मित्र ने अपनी वाल पर संकलित कर रखा था।
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#सरकारी_नौकरी_का_आकर्षण: #प्राइवेट_बिज़नेस
टेक्निकल और प्रोफेशनल इंस्टीटूट में पढ़ने के लिए कोचिंगों की लंबी फीस, और उससे भी बड़ी लंबी लाइन फिर भी समझ मे आती है, लेकिन सिविल सर्विसेज के लिए मां बाप की गाढ़ी कमाई से सालाना लाखों रूपये कोचिंग में बर्बाद करना नहीं समझ मे आता, जिनमे सफलता का प्रतिशत .005% है। यदि अधिक हो तो बताना, एडिट कर दूंगा।
भारत स्वरोजगारियों का देश था और आज भी है, लेकिन सरकार ने कानून बनाकर स्वरोजगार को असाध्य बना रखा है ब्रिटिश समय से ही।
इसलिए ब्रिटिश द्वारा स्थापित "बेऔरोक्रेसी की आत्मा #प्राइवेट_बिज़नेस" का आकर्षण, और भारत सरकार के देश आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी स्वरोजगार विरोधी कानून, आज के युवक और युवतियों को तरह विनाश के रास्ते पर ले जा रहा है।
एक पुराना लेख पढिये।
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भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का जितना सुंदर वर्णन J Sunderland ने अपनी पुस्तक India in Bondage मे की है , शायद उसकी बानगी कहीं भी देखने को न मिले । 1929 की ये पुस्तक छपने के बाद ही अंग्रेजों ने इसको बन कर दिया था । इसकी एक्की दुक्की प्रति ही दुनिया मे उपलब्ध है । मित्र Sunil Saxena की कृपा से मेरे पास एक प्रति आ गई है ।
क्या लिखते है वो , देखिये जरा ।
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XV
दूसरे शब्दों मे कहें तो भारत के प्रति हो रहे अन्याय का इलाज , उसकी आर्थिक और राजनैतिक दुर्दशा का इलाज , जोकि दुनिया मे सभी सार्वकालिक रूप से और हर देश के लिए लागू होता है , वो है विदेशी शासन से मुक्ति और स्वराज्य । इंग्लैंड इस बात को जानता है, और वो खुद भी किसी विदेशी शासन से शासित होने के पूर्व नष्ट होना पसंद करेगा । यूरोप का हर देश इस बात को जानता है और वो किसी भी हालत मे अपनी स्वतन्त्रता और स्वराज्य का आत्म समर्पण के पहने मृत्युपर्यंत लड़ना पसंद करेगा । कनाडा , औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड और दक्षिणी अफ्रीका इस बात से वाकिफ हैं : इसलिए, यद्यपि वो ग्रेट ब्रिटेन की संताने हैं , लेकिन उनमे से एक भी देश ब्रिटिश साम्राज्य का हिससा बने रहने की अनुमति एक दिन के लिए भी नहीं देगा , यदि उनको खुद के स्वशासन करने के लिए कानून बनाने और अपने हितो की रक्षा करने और देश के भविष्य निर्माण की अनुमति नहीं होगी तो।
यही भारत के लिए आशा की बात है । उसको उसको ग्रेट ब्रिटेन से बिना कोई संबंध रखे स्वतंत्र होना ही चाहिए, या फिर यदि उसको ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होना भी पड़े तो उसको एक सच्चे पार्टनर ( पार्टनर के नाम पर गुलाम नहीं ) का स्थान मिलना चाहिए , --- वो स्थान और स्वतन्त्रता जो साम्राज्य के अन्य पार्टनर यथा , कनाडा औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड या फिर साउथ अफ्रीका जैसे देशो को मिला हुआ है।
अब हम लोगों के समक्ष एक डाटा है , जिससे हम भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का अर्थ समझ सकते हैं । इस संघर्ष का अर्थ , एक महान देश के महान लोगों का एक सामान्य , आवश्यक और चेतन विरोध है जो लंबे समय से गुलामी का दंश झेल रहे हैं । ये एक शानदार देश , जो आज भी अपनी inherent superiority के प्रति चेतन है ,का असहनीय गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर , अपने पैरों पर पुनः खड़ा होने का एक प्रयास है । ये भारतीय लोगो का अपने उस देश को सच्चे अर्थों मे पुनः प्राप्त करने का एक महती प्रयास है , जो उनका खुद का हो , बजाय इसके कि – जो कि डेढ़ सौ साल से विदेशी शासन की संरक्षण मे रहा है --- जॉन स्तुवर्त मिल के शब्दों मे इंग्लैंड का “ मानवीय पशुवों का बाड़ा “ ( Human cattle Farm )
-----------------------------------------------------------------------नोट -- ज्ञातव्य हो कि जॉन स्तुवर्त मिल, जेम्स मिल के सपूत हैं जिनहोने history of British India लिखी , भारत की धरती पर कदम रखे बिना 1817 मे ईस्ट इंडिया कोंपनी के देखरेख और नौकरी मे जिसमे भारत को एक बर्बर समाज वर्णित किया गया है , जो कि आज भी भारतीय इतिहासकारों की बाइबल कुरान और गीता है । भारत के प्रति वही कुत्सित भाव उसके पूत मे भी है , जोकि एक बड़ी हस्ती माना जाता है।
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यह पुस्तक 1929 में प्रकाशित हई।
और 1928 डॉ अम्बेडकर भारत के सभी वर्गों द्वारा विरोध किये जाने वाले साइमोंड के साथ अछूत की परिभाषा तय कर रहे थे।
जिसके उपरांत उन्होंने लोथियन कमिट्टी को सौंपी रिपोर्ट में राय व्यक्त किया कि अग्रजो द्वारा घोसित किये गए क्रिमिनल ट्राइब्स को वोट देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। भारत मे उनकी संख्या आज 10 करोड़ होगी।
जिस व्यक्ति की मानसिकता अग्रजो द्वारा रचित भेदभाव वाली थी आज उसी के नाम पर सामाजिक न्याय और #सामाजिक_समरसता का नारा दिय्या जा रहा है।
400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।
इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने #कैलिको_एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया। कैलिको अर्थात - कालीकट से एक्सपोर्ट होने वाले कपड़े।
1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी ।
परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि उन दस्युयों के कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से - हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे। प्रदोष अइछ की पुस्तक ट्रुथ के अनुसार जब लार्ड क्लाइव जब 1842 से 1852 तक एक सिपाही की नौकरी करके इंग्लैंड लौटा तो उसके पास 40 000 पौंड थे जबकि जब इन्होंने भारत पर कब्जा किया तो बोम्बेय के गवर्नर की सालाना सैलरी 300 पौंड थी।
अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।
ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।
इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।
तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।
1857 के 30 साल बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर को प्लाट करते है ब्रिटिश इस काम के लिए, जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।
अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।
इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।
जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।
आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
#बेऔरोक्रेसी_की_आत्मा_प्राइवेट_बिज़नेस
✍🏻© डॉ त्रिभुवन सिंह
#एक्स्प्लोर_एडवेंचर आदि आदि शब्दों का इतिहास शुरू होता है 1492 में, जब भुखमरी कंगाली अशिक्षा चर्च और बाइबिल की धर्मांधता के बीच एक एक अन्न के दाने को तरसते यूरोपीय धर्मांध ईसाइयों को लंबी यात्रा की नौका बनाने और नौकायन करने का ज्ञान प्राप्त हो चुका था।
एक और चीज का अविष्कार वे कर चुके थे - बारूद को बन बंदूक आदि में भरकर हत्या करने के हन्थियारो का।
उंनके मन मे भारत के धन वैभव की याद बनी हुई थी जो ईसाइयत फैलने के पूर्व रोमन और ग्रीक सभ्यता के समयकाल से प्लिनी मेगस्थनीज और सेल्युकस आदि के द्वारा रिकॉर्ड दस्तावेजों में दर्ज था।
उनके पास दस्यु अभियान के लिए सब कुछ था - धर्मांध और अपढ़ ईसाई जो अन्न के अभाव में या तो यूरोप में ही प्राण त्याग दें। या फिर गैर ईसाइयों के #जऱ_जोरू_जमीन पर कब्जा करके अपने प्राणों की रक्षा करें। और यदि इस कार्य मे उनकी मौत हो जाती है तो गॉड और जीसस ने हेवन में उनके लिए स्थान रिज़र्व ही कर रखा था।
लेकिन यह अभियान बहुत महंगे थे। आदमी के जान की कोई कीमत नही थी लेकिन जहाज और बंदूकें तथा दस्यु अभियान के लिए रास्ते के भोजन की व्यवस्था बहुत महंगा था। और धन सिर्फ राजाओं चर्च और नोबल्स या फुएडल्स ( इसका जो भी अर्थ होता हो ) के पास था। उन्होंने इन दस्युओं को स्पांसर किया।
समझौता हुवा लूट के माल में 20% दस्युयों का और 80% स्पांसरर्स का।
इस तरह कोलंबस और वास्कोडिगामा नामक दस्युयों के नेतृत्व में उन्होंने अमेरिका और तथाकथित वैभवशाली तीसरे देशों को खोज निकाला - भारत भी उन्हीं में से एक था जिसकी खोंज में वे निकले थे।
उसी एडवेंचर और एक्सप्लोरेशन शब्द का प्रयोग वे आज भी कर रहे हैं।
©त्रिभुवन सिंह
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