Sunday, 25 June 2023

Caste and it's origine: Nicholas B Dirk.

Caste and its origin in India;
Caste is a central symbol of India , suggesting an area which is socially and culturally different from other places , as well as expressing its essence . Nicholas B.Dirk argues that caste is in fact neither an unchanged survival of ancient India nor a single system that reflects some core culture .Rather than being an expression of Indian Tradition , caste is , he argues , is relatively modern phenomenon--the product of the encounter between India and British Colonial rule .
Nicholas B Dirk traces the career of caste through history and also examines the rise of caste politics through history and also examines the rise of caste politics in contemporary India , in particular caste based movements and their implications for Indian nationhood .
----------------------------- From "Castes of Mind" , By Nicholas B Dirk , Professor of Anthropology and History at Columbia University .
N.B. Book can be purchased from flipcart.com --home delivery

Friday, 8 October 2021

चित्त की दशा : आनंद की खोज

#चित्त_की_दशा : माइंड सेट 

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।

चित्त अर्थात मन का अर्थ ही है - किसी न किसी चीज से रंगा होना। किसी न किसी चीज से उलझे रहना। मन खाली नहीं बैठ सकता। वह उसके स्वभाव के विरुद्ध है। अखबार पढ़ो, किताब पढ़ो, फेसबुक या व्हाट्सएप में उलझे रहो। कुछ न कुछ करते रहो। खाली होते ही मन में घबराहट और उलझन होने लगती है। 

चित्त की तीन दशा हो सकती है - अनुरागी विरागी और वीतरागी। 
अनुरागी - अर्थात जिसका अनुगमन करता हो। मन की निरंतर किसी न किसी चीज के पीछे भागता रहता है। चंचलता उसका स्वभाव है। वह स्थिर नहीं रह सकता। वह खोजता है सुख, आनंद। इच्छाओं के माध्यम से, कामनाओं के माध्यम से। लेकिन पाता है अशांति, दुख, तनाव, निराशा। इसका अर्थ क्या हुवा? लक्ष्य तो हमारा ठीक है परंतु सम्भवतः लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग ठीक नहीं है। 

मन को  बन्दर कहा गया है उसे शास्त्रों में। अर्जुन भी चित्त की इसी भाव दशा से परेशान था। अर्जुन कहता है:
चन्चलं ही मनः कृष्ण: प्रमाथ बलवत दृढम्।
मन बहुत चन्चल है, मथता रहता है, बलवती है और दृढ़ भी। 
मन का स्वभाव है कि यह न्यूनतम प्रतिरोध वाली दिशा में भागता है। न्यूनतम प्रतिरोध का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जहां वह पहले जा चुका है बारम्बार। इसलिए वह वहीं जाता है। जिन विषयों में मन बारम्बार लगाया जाता है। जबरदस्ती नहीं, रुचि के साथ, अनुराग के साथ, वहां वह बारम्बार जाता है। 

इसीलिये मन पढ़ाई से भागता है। क्योंकि वहां कोई अनुराग नहीं है। उसे जबरदस्ती वहां लगाना पड़ता है। पढ़ते समय भी वह कई बार वहां से भाग खड़ा होता है। और पूरा पेज पढ़ने के उपरांत भी समझ में नहीं आता कि पढा क्या था?

तो मन जब उन उन चीजों में जाय जहाँ उसे लगता है कि खुशी मिलेगी, सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा, वह है अनुराग। मन का यह पॉजिटिव आयाम हुवा। 

इसी का नेगेटिव आयाम है - विराग। पहले जिन जिन वस्तुओं से अनुराग था, कालांतर में उसी से विराग उत्पन्न हो गया। कल जिससे दांत काटी रोटी का रिश्ता था, आज वह शक्ल भी नहीं पसंद है। उसे देखते ही सारे शरीर में आग लग जाती है। सारा मन विषाक्त हो जाता है। फिर भी मन में बारम्बार वही घूमता रहता है। मन को लाख चाहें कि कहीं और ले जाएं, वह जाने को तैयार नहीं होता। परिणाम स्वरूप उतपन्न होती है व्यथा, कुंठा, निराशा तनाव और अवसाद। 

इन दोनों ही स्थितियों में हम मन मे जो भी अनुराग विराग चल रहा है, उसमें लिप्त हैं। हम अपने मन से अलग नहीं हैं। मन जहां जहां जा रहा है हम मन के साथ जा रहे हैं। 

एक तीसरा आयाम भी है चित्त का - वीतराग। मन न अनुरक्त होता है न विरक्त। दोनों से ऊपर उठ गया। द्रस्टा हो गया। साक्षी बन गया। मन में जो भी चल रहा है। वह स्पष्ट दिखने लगा। अब मन से पर्याप्त दूरी निर्मित करने में आपने सफलता प्राप्त कर लिया है। मन अब मलिन न रहा। अब वह उज्ज्वल होने लगा। मलिन और मन दो अलग अलग शब्द नहीं हैं। मन का होना ही मलिनता है। मन के पार जाना ही मन का उज्ज्वल होना है।
 लेकिन यह होगा कैसे?
ज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग। 
कृष्ण के प्रेम में ज्यों ज्यों डूबता जाता है, त्यों त्यों ऐसा होने लगता है। अचानक न होगा। धीरे धीरे होगा। जैसे पानी को एक एक डिग्री गरम करने से वह 100 डिग्री तक गरम होता है। तब जाकर पानी भाप में बदलता है। ठीक वैसे ही। 

कृष्ण कहते हैं:
शनैः शनैः उपरमेत बुद्ध्या धृत गृहीतया। 
आत्म संस्थम मन: कृत्वा न कश्चित अपि चिंतयेत। 

मन जहाँ जहाँ जाती है बुद्द्धि भी वहीं वहीं जाती है और जो भी कुछ मन में चल रहा होता है उसके बारे में गलत सही का निर्णय लेती चलती है, विश्लेषण करती रहती है। जैसे कंप्यूटर में मेमोरी और प्रोसेसर एक साथ काम करते हैं ठीक वैसे ही। 

अब कृष्ण कह रहे हैं कि बुद्द्धि दो प्रकार की होती हैं। प्रवृत्त मार्गी और निवृत्त मार्गी। 
प्रवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो ऊपर वर्णित दो दशाओं - अनुराग और विराग में मन के साथ चलती रहती है। 
निवृत्त मार्गी बुद्द्धि वह है जो वीतरागी व्यक्ति की बुद्द्धि होती है। निर्लिप्त होती या निर्लिप्त बुद्द्धि। कृश्नः कह रहे हैं कि निवृतमार्गी बुद्द्धि और धैर्य पूर्वक योग के मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति का मन केन्द्रीभूत होने लगता है और उसका मन शांत हो जाता है। यही शांति ही आनंद है। 

हम शांति और आनंद से परिचित नहीं हैं। हम तो परिचित हैं उस आनंद से जो अशांति के साथ आती है। किसी ने कहा - हर्षोन्माद। हर्ष के साथ उन्माद। हर्ष के साथ कोलाहल। पार्टी, गाजा बाजा धूम धड़ाका वाले आनंद से ही हम परिचित हैं। शांति और आनंद जैसा कोई आयाम होता है जीवन का, इससे तो हम पूर्णतः अपरिचित हैं। हमने उसका स्वाद ही कभी नहीं लिया। 

प्रवृत्ति और निवृत्ति को एक अन्य उद्धरण द्वारा समझें। कृष्ण दुर्योधन को उपदेश देते हैं। तो वह कहता है:
जानामि धर्म: न च मे प्रवृत्ति। 
जानामि अधर्म: न च में निवृत्ति। 
धर्म को जानता हूँ मैं परंतु मैंने अधर्म का गहन अभ्यास किया है बचपन से ही, इसलिए मेरी कोई रुचि ही नहीं है धर्म की ओर जाने की।
और मैं अधर्म को भी जानता हूँ। परंतु उसका गहन अभ्यास किया है कि अब वही मेरी प्रवृत्ति बन चुकी है, आदत बन चुकी हैं। अब मैं उससे निकल नहीं सकता। 

जो हम बारम्बार अभ्यास करते हैं वही हमारी प्रवृत्ति बन जाती है, हैबिट कहिए, आदत कहिए, संस्कार कहिए, जो कहना हो कहिए।

परंतु एक बात तो तय है कि संसार में कोई व्यक्ति नहीं है जिसे सुख और आनंद की खोज न हो। परमानंद की खोज भले न हो। भले ही वह नाष्तिक क्यों न हो, लेकिन सुख और आनंद उसे भी चाहिये। 
लेकिन चाहने से क्या होता है?
लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग भी तो ऐसा होना चाहिए जो लक्ष्य की ओर जाता हो। क्योंकि जिस मार्ग पर हम जा रहे हैं वह भविष्य के गहन खोल में छिपा है। 
तय हमें करना है कि हमारा मार्ग प्रवृत्ति का होगा।
या निवृत्ति का?

Sunday, 26 September 2021

Discrimination is byproduct of intellect

#मन_बुद्द्धि_भेदभाव :

मन का मौलिक स्वभाव है चंचलता। और बुद्द्धि का मौलिक स्वभाव है - भेदभाव। 
यक्ष ने युधिष्ठिर से पूंछा कि संसार में सबसे वेगवान वस्तु क्या है? 
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मन। 
साइंस कहता है कि प्रकाश सबसे वेगवान है। 
लेकिन साइंस मन के बारे में अनभिज्ञ है, इसलिए वह ऐसा कहता है। एक पल में आपका मन यहां से न्यूयॉर्क पहुँच जाता है यदि पहले कभी आप न्यूयॉर्क गए हों तो। 

तो मन सबसे अधिक वेगवान और चंचल वस्तु है - यह इसका मौलिक स्वभाव है। 

बुद्द्धि - का मौलिक स्वभाव है भेदभाव करना। 
कौन अपना है, कौन पराया है, इसका निर्णय बुद्द्धि करती है। कौन चीज खाद्य है कौन अखाद्य, इसका निर्णय बुद्द्धि करती है। कीचड़ और कमल का भेद बुद्द्धि के बिना संभव नहीं है। दीवाल कहाँ है, और दरवाजा कहाँ है यह निर्णय भी बुद्द्धि करती है।

मन और बुद्द्धि हमको मिली है जीवन जीवन जीने के लिए। परंतु सारा संसार मन और बुद्द्धि नामक यंत्र का गुलाम है। यद्यपि वह प्रकृति प्रदत्त यंत्र है मनुष्य को। इसके बिना जीवन संभव न हो सकेगा। इसके बिना कोई रचनात्मक कार्य भी न हो सकेगा। लेकिन यह रचना करता है तो विध्वंस भी करता है। 
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बम उस विध्वंस के उदाहरण हैं - जो मनुष्य की बुद्द्धि ने बनाये थे, जिसको एक विमान द्वारा वहां ले जाकर गिराया गया, वह भी मन और बुद्द्धि का ही कार्य था। 
मन और बुद्द्धि जिसके पास है वह भेदभाव करेगा ही। किसी न किसी स्तर पर। निर्बुद्धि भेदभाव नहीं करता। और न वह व्यक्ति जो मन और बुद्द्धि के पार चला गया हो। 

इसलिए माइंड या मन और इंटेलक्ट ( बुद्द्धि) का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि मन और बुद्द्धि मालिक हैं, जो हमें संचालित करते हैं या व्यक्ति मालिक है अपने मन और बुद्द्धि का। यदि मन और बुद्द्धि मालिक हैं व्यक्ति का तो वह व्यक्ति एक यंत्र मात्र है। और जिसका यंत्र वह है उसे ही माया कहते हैं।
कृष्ण कहते हैं:
ईश्वर सर्वभूतेषु हृत देशे तिष्ठति अर्जुन।
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्र आरूढानि मायया।।

हे अर्जुन ईश्वर तो सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। परंतु सब को माया नामक यंत्र पर चढ़ाकर सबको भरमाये हुए है। 

और माया क्या है ? यह प्रश्न लक्ष्मण पूंछते हैं राम से।
राम एक लाइन का उत्तर देते हैं:
मैं और मोर तोर तै माया।

मैं मेरा, तुम और तेरा - यही माया है।

तो मैं मेरा, तुम तेरा यह निर्णय कौन देता है ?
यह निर्णय बुद्द्धि देती है। 
बुद्द्धि और मन का गुलाम - परतंत्र है।
जो मन और बुद्द्धि की गुलामी से निकल जाये - वही परम स्वतंत्र है। 

जो व्यक्ति अपनी बुद्द्धि और मन का मालिक हो जाता है उसे कई नामों की संज्ञा दी जाती है - ब्राम्हण, स्वामी, योगी आदि आदि।

©त्रिभुवन सिंह

Sunday, 19 September 2021

Be Positive: Why and How

#Be_Positive: #But_why_and_How ?

वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं।
- महर्षि पतंजलि 
वितर्क अर्थात मन में जो भी चलता रहता है-गड्डम गड्ड। जो भी विचार आपके मन को व्यथित करते रहते हैं वह वितर्क की श्रेणी में आते हैं। 

तर्क का अर्थ है- लॉजिकल थिंकिंग। चैतन्य चिंतन है तर्क। आपको पता है कि आप क्या सोच रहे हैं। You know what's going in your mind. वितर्क का अर्थ है कि You are not aware of your mind, but its full of bullshit thoughts which are tremendously bothering you. 

मन में चलता ही रहता है कुछ न कुछ ऐसा। मन में गीत फूट रहा है, संगीत फूट रहा है, नृत्य फुट रहा है, तो वह सुखद होता है। मन में क्रोध पनप रहा है,  हिंसा, घृणा, ईर्ष्या द्वेष अवसाद पनप रहा है, तो वह दुखद होता है। 

लेकिन सुख के क्षण सीमित होते हैं। दुख के क्षण असीमित। दुख के क्षण नहीं होते - घण्टे महीने और साल होते हैं। अधिकतर दुख भूतकाल की पीड़ाओं से या भविष्य के भय से उपजते हैं। दोनों का अस्तित्व नहीं है लेकिन मन में यही सब कुछ गड्डमड्ड चलता रहता है। जो व्यथित करता है, चिंतित करता है, उदास करता है, भयभीत करता है। 

आजकल कुछ नहीं तो कोरोना ने सबको भयभीत कर रखा है। भय मनुष्य के मन का स्वाभाविक अंग है। वृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार मन के दस प्रकोष्ठ हैं: काम (कामना वासना चाहत डिजायर) संकल्प, विचिकित्सा ( संशय) धैर्य, अधैर्य, श्रद्धा, अश्रद्धा, हिं ( लज्जा) भीं ( भय ) धी ( बुद्द्धि विवेक)। 
यह मन या माइंड के अंग हैं। यह सभी मनुष्यों के अंदर होता है। भय बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है मानव मन का। निर्भयता ट्रैनिंग से आती है मन के। 

एक मित्र भयभीत है कोरोना से। यह बात Niraj Agrawal ने मुझे बताया। उसने बताया कि उस मित्र को भय के कारण नींद ही नहीं आ रही है। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो भयभीत होंगे। भयभीत तो सभी हैं, परंतु कौन कितना है यह बताना संभव नहीं है। यह तो वह व्यक्ति स्वयं  जानता है। लेकिन मनुष्य का अहंकारी इतना प्रबल होता है कि उसके लिए यह स्वीकार करना कठिन होता है कि वह भयभीत है।

 मेडिकल साइंस इमोशन्स को कोई महत्व नहीं देता। क्योंकि इमोशन्स को शरीर में खोजा नहीं जा सकता। मेडिकल साइंस आजकल एविडेंस बेस्ड मेडिसिन की बात करता है। तो शरीर में इमोशन्स कहाँ खोंजे वह? लेकिन इससे सहमत होता है कि भय से शरीर का एक तंत्र सक्रिय होता है, जिससे निकले केमिकल शरीर की इम्युनिटी कम करते हैं। ( पढिये #फ्लाइट_ओर_फाइट : #HPA_Axis)। 

मन को इन व्यथाओं से मुक्त कराने की विधियों का ही योग विज्ञान में वर्णन है। हर मनुष्य के मन की व्यथा अलग अलग होती है। परंतु महर्षि पतंजलि ने उन्हें पांच श्रेणियों में बांटा है - अविद्या अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेषा: पंच कलेशा:।।
 यद्यपि हर मनुष्य अलग है अनोखा है। इसलिए सबके माइंड का फॉरमेट एक जैसा ही होता है। 

महर्षि पतंजलि ने मन को व्यथा से मुक्त करने की अनेकों विधियों का वर्णन किया है योगसूत्र में। उनमे से एक विधि है - वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं। 

जब मन विचारों के जंजाल में उलझ जाए और ऊल जलूल विचार मन को व्यथित करने लगें, आतंकित करने लगें, तो प्रतिपक्ष की भावना मन में लाना चाहिए। जिसको आजकल कहा जाता है - Be Positive. Don't think Negative, Be positive.

 महर्षि कह रहे हैं कि ऐसी स्थिति में उल्टी भावना अपने मन के अंदर ले आनी चाहिए। अर्थात यदि मन में हिंसा और क्रोध उतपन्न हो, भय का संचार हो, व्यथा उत्पन्न हो तो करुणा और प्रेम, निर्भयता, हर्ष का भाव मन में लाना चाहिए। 

लेकिन क्या यह इतना आसान है?
नहीं आसान नहीं है। आसान होता तो महर्षि इसे सूत्र बद्व न करते। महर्षि पतंजलि वैज्ञानिक हैं और शब्दों में कंजूस। पूरे योग को तीन शब्दों में व्याख्यायित करने वाले : योगः चित्तवृत्ति निरोध:।

 चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त अर्थात मन या माइंड। उसकी वृत्ति क्या है? चंचल होना। बार बार वहीं घूमफिर कर आ जाना जो बात मन मे अंटक गयी है, जिस बात पर मन विदक गया है, जो बात मन में चुभ गयी है, जो मन में खटक रही है। यह तो मन का सहज स्वभाव है।
तो फिर ? कैसे होगा वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनं?

तो पहली बात तो यह है कि हमें यह समझना होगा कि जिस तरह हम जीवन जीते हैं, उसमें हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे मन में चल क्या रहा है? हम अपने मन के प्रति बेहोश रहते हैं। हम घर से निकले आफिस के लिए। और आधे घण्टे में आफिस पहुँचे। उन आधे घण्टे में हमारे मन में क्या क्या चला, क्या क्या योजनाएं बनी, कौन कौन सी व्यथाएँ उत्पन्न हुयी, इस सबका हमें कोई ख्याल ही नहीं रहता। सब कुछ यंत्रवत हो रहा है। हम एक यंत्र की भांति जीवन गुजार रहे हैं। सर्वप्रथम इस बात को स्वीकार किया जाय कि हम यंत्रवत जीवन जी रहे हैं, बेहोशी में जी रहे हैं। स्वीकार करते ही आधा काम खत्म हो जाता है। लेकिन स्वीकार गहन होना चाहिए।निरंतर होना चाहिए। 

दूसरी बात यह है कि हमें होश में, बोध में जीने की कला सीखनी होगी। हमें अपने मन का चुपके से पीछा करना होगा। हमारे मन में क्या चल रहा है चुपचाप उस पर दृष्टि रखनी होगी। तभी यह समझ मे आएगा कि हमारे मन में क्या चल रहा है।

 इसी को महर्षि पतंजलि स्वाध्यायः कहते हैं। अपना अध्ययन। अपने मन मे जो भाव या विचार आ रहे हैं उनका अध्ययन। तभी यह संभव होगा कि मन में जो विचार उत्पन्न हो रहे हैं, व्यथित कर रहे हैं, उनसे अपने चित्त को सकारात्मक विचारों और भावों की तरफ मोड़ा जा सकेगा। 

©त्रिभुवन सिंह

एक वर्ष पुरानी पोस्ट।

उलटबासी

#उलटबासी :

पहले दही जमाइए पीछे दुहिये गाय।
बछड़ा वाके पेट में माखन हाट बिकाय।।
- कबीरदास 
हमारे हिंदीबाजों ने slaves और गुलामों की हिंदीबाजी दास में करके, अपने यूरोपियन आकाओं का अनुसरण किया और अरबी और यूरोपीय लुटेरी संस्कृति को भारत में खोज निकाला। 

कबीर किसके दास हो सकते हैं?
कबीर तो मालिक हैं अपने। स्वामी। 

उनकी उलटबासियों की यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर किस तरह व्याख्या कर पाते होंगे, मैं मात्र इसकी कल्पना कर सकता हूँ। 

वे कहते हैं कि पहले दही जमाइए। अर्थात पहले मन को एकाग्र कीजिये या निरुद्ध कीजिये। दूध तो हल्के से धक्के से छलक जाता है। दही हल्के धक्के से छलकता नहीं हिलता डुलता नहीं। यह योगी के  मनोस्थिति का वर्णन है। 
कृष्ण इसी को कहते हैं :
योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। 

प्रायः हमारे मन की क्या दशा होती है। जैसे ही मन में कोई विचार आया, हम उसी विचार के साथ बहने लगते हैं। 
या हम कोई काम कर रहे हैं। और मन में कुछ और चल रहा है। कभी कभी ऐसा होता है कि पूरा का पूरा पेज पढ़ गए और समझ में ही नहीं आया कि क्या पढ़ा था। क्योंकि मन या चित्त कहीं और था।
 सड़क पर चलते हुए आदमी को देखो। वह चला जा रहा है और मन में उसके कुछ न कुछ चल रहा है। कभी कभी तो वह स्फुट स्वर में कुछ बोल बैठता है। 

या हम गाड़ी चला रहे हैं। गाड़ी चली जा रही है और हमारे मन में सैकड़ो विचार और योजनाएं बन बिगड़ रही हैं। शरीर और मन एक स्थान पर नहीं है।

 कृष्ण कहते हैं योगस्थ होकर या ध्यानस्थ होकर काम करो।
 संग त्यक्तवा - विचारों की आंधी में न बहो। ध्यान से काम करो। हमने बचपन से यह सुना है अपने अभिभावकों से शिक्षकों से कि - ध्यान से खाओ, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से काम करो। लेकिन क्या वे इसका अर्थ जानते थे? जब जानते नहीं थे, तो बताते क्या कि ध्यान क्या है? 

फिर कबीर कहते हैं कि पीछे दुहिये गाय। इंद्रियों के निग्रह के बारे में उसके बाद सोचो। हम उल्टा करने लगते हैं। पहले इन्द्रिय निग्रह करने का प्रयास करते हैं। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। कई योगियों की जीवन यात्रा में जैसे कि विश्वामित्र की जीवन यात्रा में हमने अप्सराओं की बात सुनी है। यह कोई भौतिक स्त्रियां नहीं थी। यह मन की कल्पना से उपजी स्त्रियां थीं। क्योंकि इन्द्रिय निग्रह के द्वारा उन्होंने ब्रम्हचर्य का पालन करना शुरू तो कर दिया परंतु मन में स्त्री बसी रही। उसी ने अप्सरा का रूप धर लिया। यह बात अपने मन में झांके बिना समझना असंभव है। 

कृश्ण इसे मिथ्याचार कहते हैं।
कर्मेन्द्रिय संयम्य या आस्ते मनसा स्मरण। 
इन्द्रियार्थेषु विमूढात्मा मिथ्याचार स उच्यते। 
कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो लोग मन में विषयों के बारे में सोचते रहते हैं, वे विमूढ़ और मिथ्याचारी कहलाते हैं। 

गांधी के तीन बंदरो को सोचिये - बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। 
अब बिना देखे तो पता न चलेगा कि कोई चीज अच्छी है या बुरी? देखना तो पड़ेगा। लेकिन देखने के बाद यदि आंख बंद भी कर लिया तो वह बुरी बात मन के अंदर चलने लगेगी। वही बात बुरी बात सुनने के संदर्भ में भी है। बुरी बात एक बार सुन लिया और कान बन्द कर लिया तो अब बुरी बात मष्तिष्क से निकलने भी न पाएगी। बुरा मत बोलो। तो गूंगा तो बोल नहीं सकता, लेकिन क्या उसके अंदर बुरे विचार नहीं बनते? 

यह मिथ्याचार है, दिखावा है। कर्म का स्रोत है मन। मन में विचार का बीज बोया जाय तो वह कर्म रूपी पौधे को जन्म देता है। अंग्रेजी में कई लोग बोलते हैं - Thought becomes thing. अमूर्त से मूर्त का जन्म। यद्यपि विचार अमूर्त नहीं होते, वे मूर्त ही होते हैं लेकिन इतने शूक्ष्म कि उनकी मूर्ति बनती नहीं। मेडिकल साइंस भी सिर्फ विचार की तरंगों को पकड़ पाता है, विचारों को नहीं, जिसे वह ब्रेन वेव्स कहता है। 

 जब तक मन पर नियंत्रण न होगा वह कर्म में परिणित होता ही रहेगा। भले वह कर्म मानसिक कर्म तक ही सीमित रहे। समाज उससे अप्रभावित रह सकता है लेकिन हम स्वयं उससे अप्रभावित नहीं रह सकेंगे। 

फिर आता है बछड़ा वाके पेट में।

यहीं से जन्म होता है - द्विजता का। दूसरा जन्म जिसे कहा गया है। साक्षी भी इसे ही कहा जाता है। द्विजता का जन्म होते ही उसकी सुवास चारों दिशाओं में फैलने लगती है। कबीर कहते हैं इसे - माखन हाट बिकाय।  

ॐ 
©त्रिभुवन सिंह

Friday, 17 September 2021

सरकारी Vs प्राइवेट

#सरकारी_Vs_प्राइवेट :

आज जब सरकारी बनाम प्राइवेट की बहस शुरू की गयी है, तो मुझे लगता है कि इतिहास की दृष्टिकोण से भी इसको देखा जाय।

सरकारी नौकरी का सबसे बड़ा आकर्षण है #प्राइवेट_बिज़नेस और स्वरोजगार को हतोत्साहित करने वाले कानून, जो आज भी ब्रिटिश दस्युओं द्वारा निर्मित ढांचों पर बनाये जा रहे हैं। 
ब्रिटिश ने कानून बनाया था - प्रोटेक्टिव मॉडल कानून का। किसका प्रोटेक्शन? ब्रिटिश वाणिज्य और मैन्यूफैक्चरिंग का। उसकी नींव निर्मित होती थी - भारत में स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने वाले कानून बनाकर। लेकिन स्वतंत्र भारत मे आज भी जारी है उनका बने रहना? 
क्यों? 
#प्राइवेट_बिज़नेस पर टैप कीजिये तो आपको कई लेख मिलेंगे मेरे। 
फिलहाल एक प्रस्तुत है। किसी मित्र ने अपनी वाल पर संकलित कर रखा था।
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#सरकारी_नौकरी_का_आकर्षण: #प्राइवेट_बिज़नेस 

टेक्निकल और प्रोफेशनल इंस्टीटूट में पढ़ने के लिए कोचिंगों की लंबी फीस, और उससे भी बड़ी लंबी लाइन फिर भी समझ मे आती है, लेकिन सिविल सर्विसेज के लिए मां बाप की गाढ़ी कमाई से सालाना लाखों रूपये कोचिंग में बर्बाद करना नहीं समझ मे आता, जिनमे सफलता का प्रतिशत .005% है। यदि अधिक हो तो बताना, एडिट कर दूंगा।

 भारत स्वरोजगारियों का देश था और आज भी है, लेकिन सरकार ने कानून बनाकर स्वरोजगार को असाध्य बना रखा है ब्रिटिश समय से ही। 

इसलिए   ब्रिटिश द्वारा स्थापित "बेऔरोक्रेसी  की आत्मा #प्राइवेट_बिज़नेस" का  आकर्षण, और भारत सरकार के देश आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी स्वरोजगार विरोधी कानून,  आज के युवक और युवतियों को तरह  विनाश के रास्ते पर ले जा रहा है। 

एक पुराना लेख पढिये। 
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भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का जितना सुंदर वर्णन J Sunderland ने अपनी पुस्तक India in Bondage मे की है , शायद उसकी बानगी कहीं भी देखने को न मिले । 1929 की ये पुस्तक छपने  के बाद ही अंग्रेजों ने इसको बन कर दिया था । इसकी एक्की  दुक्की प्रति ही दुनिया मे उपलब्ध है । मित्र Sunil Saxena की कृपा से मेरे पास एक प्रति आ गई है ।

 क्या लिखते है वो , देखिये जरा ।
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XV
दूसरे शब्दों मे कहें तो भारत के प्रति हो रहे अन्याय का इलाज , उसकी आर्थिक और राजनैतिक दुर्दशा का इलाज , जोकि दुनिया मे सभी सार्वकालिक रूप से और हर देश के लिए लागू होता है , वो है विदेशी शासन से मुक्ति और स्वराज्य । इंग्लैंड इस बात को जानता है, और वो खुद भी किसी विदेशी शासन से शासित होने के पूर्व नष्ट होना पसंद करेगा । यूरोप का हर देश इस बात को जानता है और वो किसी भी हालत मे अपनी स्वतन्त्रता और स्वराज्य का आत्म समर्पण के पहने मृत्युपर्यंत लड़ना पसंद करेगा । कनाडा , औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड और दक्षिणी अफ्रीका इस बात से वाकिफ हैं : इसलिए, यद्यपि वो ग्रेट ब्रिटेन की संताने हैं , लेकिन उनमे से एक भी देश ब्रिटिश साम्राज्य का हिससा बने रहने की अनुमति  एक दिन के लिए भी नहीं देगा , यदि उनको खुद के स्वशासन करने के लिए कानून बनाने और अपने हितो की रक्षा करने और देश के भविष्य निर्माण की अनुमति नहीं होगी तो।
यही भारत के लिए आशा की बात है । उसको उसको ग्रेट ब्रिटेन से बिना कोई संबंध रखे स्वतंत्र होना ही चाहिए, या फिर यदि उसको ब्रिटिश साम्राज्य  का हिस्सा होना भी पड़े तो उसको एक सच्चे पार्टनर ( पार्टनर के नाम पर गुलाम नहीं ) का स्थान मिलना चाहिए , --- वो स्थान और स्वतन्त्रता जो साम्राज्य के अन्य पार्टनर यथा , कनाडा औस्ट्रालिया न्यूजीलैंड या फिर साउथ अफ्रीका जैसे देशो को मिला हुआ है।
अब हम लोगों के समक्ष एक डाटा है , जिससे हम भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का अर्थ समझ सकते हैं । इस संघर्ष का अर्थ , एक महान देश के महान लोगों का एक सामान्य , आवश्यक और चेतन विरोध है जो लंबे समय से गुलामी का दंश झेल रहे हैं । ये एक शानदार देश , जो आज भी अपनी inherent superiority के प्रति  चेतन है ,का असहनीय गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर , अपने पैरों पर पुनः खड़ा होने का एक प्रयास है । ये भारतीय लोगो का अपने उस देश को सच्चे अर्थों मे पुनः प्राप्त  करने का एक महती प्रयास है , जो उनका खुद का हो , बजाय इसके कि – जो कि डेढ़ सौ साल से विदेशी शासन की संरक्षण मे रहा है  --- जॉन स्तुवर्त मिल के शब्दों मे इंग्लैंड का “ मानवीय पशुवों का बाड़ा “ ( Human cattle Farm ) 
-----------------------------------------------------------------------नोट -- ज्ञातव्य हो कि जॉन स्तुवर्त मिल,  जेम्स मिल के सपूत हैं जिनहोने history of British India लिखी , भारत की धरती पर कदम रखे बिना 1817 मे ईस्ट इंडिया कोंपनी के देखरेख और नौकरी मे जिसमे भारत को एक बर्बर समाज वर्णित किया गया है , जो कि आज भी भारतीय इतिहासकारों की बाइबल कुरान और गीता है । भारत के प्रति वही कुत्सित भाव उसके पूत मे भी है , जोकि एक बड़ी हस्ती माना जाता है।
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यह पुस्तक 1929 में प्रकाशित हई।

और 1928 डॉ अम्बेडकर भारत के सभी वर्गों द्वारा विरोध किये जाने वाले साइमोंड के साथ अछूत की परिभाषा तय कर रहे थे।
जिसके उपरांत उन्होंने लोथियन कमिट्टी को सौंपी रिपोर्ट में राय व्यक्त किया कि अग्रजो द्वारा घोसित किये गए क्रिमिनल ट्राइब्स को वोट देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। भारत मे उनकी संख्या आज 10 करोड़ होगी।

जिस व्यक्ति की मानसिकता अग्रजो द्वारा रचित भेदभाव वाली थी आज उसी के नाम पर सामाजिक न्याय और  #सामाजिक_समरसता का नारा दिय्या जा रहा है। 

400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।

इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने #कैलिको_एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया। कैलिको अर्थात - कालीकट से एक्सपोर्ट होने वाले कपड़े। 

1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन  प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी । 

  परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि उन दस्युयों के कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और  धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से -  हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे। प्रदोष अइछ की पुस्तक ट्रुथ के अनुसार जब लार्ड क्लाइव जब 1842 से 1852 तक एक सिपाही की नौकरी करके इंग्लैंड लौटा तो उसके पास 40 000 पौंड थे जबकि जब इन्होंने भारत पर कब्जा किया तो बोम्बेय के गवर्नर की सालाना सैलरी 300 पौंड थी। 
 अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।

ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।

इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।

तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।

1857 के 30 साल बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर को प्लाट करते है ब्रिटिश इस काम के लिए, जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।

अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।

इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में  #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।

जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे  तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।

आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

#बेऔरोक्रेसी_की_आत्मा_प्राइवेट_बिज़नेस
✍🏻© डॉ त्रिभुवन सिंह

#एक्स्प्लोर_एडवेंचर आदि आदि शब्दों का इतिहास शुरू होता है 1492 में, जब भुखमरी कंगाली अशिक्षा चर्च और बाइबिल की धर्मांधता के बीच एक एक अन्न के दाने को तरसते यूरोपीय धर्मांध ईसाइयों  को लंबी यात्रा की नौका बनाने और नौकायन करने का ज्ञान प्राप्त हो चुका था। 

एक और चीज का अविष्कार वे कर चुके थे - बारूद को बन बंदूक आदि में भरकर हत्या करने के हन्थियारो का। 

उंनके मन मे  भारत के धन वैभव की याद बनी हुई थी जो ईसाइयत फैलने के पूर्व रोमन और ग्रीक सभ्यता के समयकाल से प्लिनी मेगस्थनीज और सेल्युकस आदि के द्वारा रिकॉर्ड दस्तावेजों में दर्ज था। 

उनके पास दस्यु अभियान के लिए सब कुछ था - धर्मांध और अपढ़ ईसाई जो अन्न के अभाव में या तो यूरोप में ही प्राण त्याग दें। या फिर गैर ईसाइयों के #जऱ_जोरू_जमीन पर कब्जा करके अपने प्राणों की रक्षा करें। और यदि इस कार्य मे उनकी मौत हो जाती है तो गॉड और जीसस ने हेवन में उनके लिए स्थान रिज़र्व ही कर रखा था। 

लेकिन यह अभियान बहुत महंगे थे। आदमी के जान की कोई कीमत नही थी लेकिन जहाज और बंदूकें तथा दस्यु अभियान के लिए रास्ते के भोजन की व्यवस्था बहुत महंगा था। और धन सिर्फ राजाओं चर्च और नोबल्स या फुएडल्स ( इसका जो भी अर्थ होता हो ) के पास था। उन्होंने इन दस्युओं को स्पांसर किया। 

समझौता हुवा लूट के माल में 20% दस्युयों का और 80% स्पांसरर्स का। 

इस तरह कोलंबस और वास्कोडिगामा नामक दस्युयों के नेतृत्व में उन्होंने अमेरिका और तथाकथित वैभवशाली  तीसरे देशों को खोज निकाला - भारत भी उन्हीं में से एक था जिसकी खोंज में वे निकले थे। 

उसी एडवेंचर और एक्सप्लोरेशन शब्द का प्रयोग वे आज भी कर रहे हैं। 
©त्रिभुवन सिंह

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Thursday, 9 September 2021

मनोभाव का अर्थ क्या है?

#मन_की_भावदशा : #स्वस्थ होना क्या है। 

कभी ध्यान दिया है कि आप सड़क पर जा रहे हैं और देखते हैं कि कुछ कुत्ते आने जाने वाले हर वाहन को कुछ दूर दौड़ाते हैं भूंकते हुए। फिर वापस आ जाते हैं। 
फिर नए वाहन के साथ यही प्रक्रिया दोहराते हैं। 

क्या उनकी अभिलाषा वाहन चलाने की है? या वाहन चालक को हानि पहुंचाने की होती है? उसको धमकाने की होती है?
नहीं यह कुत्तों के मन की भाव दशा होती है। जो उनके कृत्य में दृष्टिगोचर होता है। 

ऐसी ही कुछ भाव दशा हमारे मन की होती है। हमारे मन की सड़क पर विचारों का रेला लगा होता है। एक के बाद एक विचार और भाव आते जाते रहते हैं। जैसे ही कोई विचार या भाव हमारे मन की सड़क पर आया - हमारा मन स्वतः उसके साथ चलने लगता है। उस विचार के संदर्भ में हमारे मन में गुणा भाग, विश्लेषण चलने लगता है। हमको पता भी नहीं होता कि हम किन विचारों में खो जाते हैं। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि कोई नया विचार हमारे मन की सड़क पर नहीं आ जाता। अब यही प्रक्रिया इस दूसरे विचार या भाव के साथ दोहराया जाने लगेगा। 
हमारी यूनिवर्सिटी में दर्शन के एक प्रकांड शिक्षक थे। उनके शिष्य गण उनकी विद्वता का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि साहब उनका तो यह हाल था कि बाजार जाते थे पत्नी के साथ, परंतु कई बार पत्नी को बाजार में ही छोड़कर अकेले घर वापस आ जाते थे। घर आकर उन्हें ध्यान आता था कि वे तो विचारों में इतने मगन थे कि पत्नी को बाजार में ही भूलकर घर चले आये। मुझे लगता था कि यह विद्वानों का कोई लक्षण होता होगा।
 
लेकिन अब जाकर पता चला कि यह तो सम्मोहन की बीमारी है - जिसे आध्यात्मिक जगत में बेहोशी कहते हैं। Hypnosis कहते हैं। किसी व्यक्ति भाव या विचार के प्रति इतने सम्मोहित हैं कि हमें अपना पता ठिकाना भी नहीं पता। 
तुलसीदास कहते हैं:
मोहनिशा जग सोवनहारा।
देखत सपन अनेक प्रकारा।।
या चित्तवृत्ति की बात करते हुए पतंजलि इसे कहते हैं - विकल्प वृत्ति। एक विचार के साथ बहते रहना। संकल्प और विकल्प। 

हमने शेखचिल्ली की कहानियां पढ़ी हैं। वह दरअसल किसी शेखचिल्ली की कहानी नहीं है। वह हमारे अंदर ही छुपे हुए शेखचिल्लीपन का यथार्थ है। यही हमारे कृत्य में भी दृष्टिगोचर होता है। जिसे हम कहते हैं प्रतिक्रिया। किसी क्रिया के प्रति प्रतिक्रिया। 

जागृति तब आती है जब हम देख सकें कि हमारे मन की सड़क पर कौन कौन से विचार और भाव दशा के बादल आ जा रहे हैं। और जो यह देख सकता है वही अपने अस्तित्व के  केंद्र पर स्थित हो सकता है। इसी को कहते हैं स्वस्थ होना। अपने में स्थित होना। 
हमारी गति यहीं तक होती है। जिसे धारणा भी कहते हैं। 
ध्यान तो स्वतः घटित होता है। उसे ही परमात्मा का प्रसाद कहते हैं जो हमारे किये नहीं घटता बल्कि स्वतः घटता है। 

हमारे मन की भाव दशा तो ऐसी रहती है कि हमारे मन में दूसरे ही व्यक्तियों विचारों और भावों का निवास रहता है निरन्तर। यही है अस्वस्थ होना। 

©त्रिभुवन सिंह